शिवावतार आदि शंकराचार्य भगवान् की पंचमठ धाम , रीवा में मनाई गई जयंती। द्वादश ज्योतिर्लिंग, 52 शक्तिपीठ, चारों धाम व चार वेदों से सम्बद्ध चार मठ तथा पुष्कर में ब्रह्मा जी और नेपाल में पशुपतिनाथ जी को पुनः प्रतिष्ठित करने वाले वैदिक हिन्दू धर्म के पुनरोद्धारक भगवान शिव के ज्ञानावतार भगवत्पाद आदि शंकराचार्य जी की जयंती आदित्यवाहिनी रीवा ( गोवर्धन मठ, पुरी, पीठ शंकराचार्य जी के शिष्य समूह) के संयोजकत्व में रुद्राभिषेक, शंकराचार्य जी के जीवन पर संगोष्ठी एवं फल – मिष्ठान्न वितरण करके बहुत ही आस्था एवं उल्लासपूर्वक मनाया गया।
इस अवसर पर जिले भर के तमाम गणमान्य नागरिक समुपस्थित होकर आदि शंकराचार्य जी के जीवन पर अपने भाव अभिव्यक्त किये।
वैदिक सनातन धर्म को पुनः स्थापित करने वाले महान दार्शनिक आदि शंकराचार्य का जन्म 507 ईसा पूर्व में हिंदू कैलेंडर के वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन भारत के केरल राज्य के वर्तमान एर्नाकुलम जिले के एक गाँव कलाडी में हुआ था। उनके पिता शिवगुरु और माता आर्यम्बा थीं। 8 वर्ष की आयु में, उन्होंने कार्तिक शुक्ल एकादशी को पूज्य गोविंदभगवतपाद से संन्यास की दीक्षा प्राप्त की।
उन्होंने प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं श्रीमद्भगवद्गीता) शास्त्र पर भाष्य लिखा। शंकराचार्य का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि सनातन धर्म शक्तिहीन हो गया था, छिन्न-भिन्न हो गया था, नष्ट हो गया था। विदेशी आक्रमण भी हुए। अपनी विद्वत्ता और तपस्या के बल पर उन्होंने बौद्ध विद्वानों को दार्शनिक शास्त्रार्थ में पराजित किया। उन्होंने अपने शास्त्र ज्ञान से श्री मंडन मिश्र जैसे विद्वानों को भी परास्त किया और उन्हें अपना शिष्य बनाया। 16 साल की उम्र में उन्हें कई उपलब्धियाँ हासिल हुईं। उन्होंने राजा सुधन्वा को भी प्रभावित किया और उन्हें अपना शिष्य बना लिया।
आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष के अल्प जीवनकाल में दूर-दूर तक कई क्षेत्रों की यात्रा की, वैदिक सनातन धर्म का बड़े पैमाने पर प्रचार और प्रसार किया। अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्य तथा बत्तीस वर्ष की आयु में स्वधाम गमन किया।
शंकराचार्य जी ने गहरी नींद में सोये समाज को जगाया। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई रचनाएँ लिखीं और कई मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। देश पर हमेशा धर्म का शासन रहे और आध्यात्मिक मूल्यों की प्रगति हो, इसके लिए महान द्रष्टा ने चार धार्मिक संस्थानों की स्थापना की। दिशात्मक (आम्नाय) मठों के विधान में आचार्य कहते हैं..
”कृतेविश्वगुरुब्रम्हात्रेतायांऋषिसप्तमः।
द्वापरेव्यासएवंस्यत्, कलावत्रभवाभ्यहम्।।”