रीवा। आजादी की लड़ाई में विंध्य क्षेत्र के वीरों ने अपने देश की रक्षा के लिए अंग्रेजों का सीधा सामना किया। जिसमें कई शहीद भी हुए। कुछ तो ऐसे थे जो इतिहास बनाने के लिए आए थे और देश को आजादी देने के लिए प्राणों का बलिदान भी कर दिया। इसी में एक थे लाल पद्मधर सिंह, जिनका जन्म सतना जिले के कृपालपुर इलाकेदार के यहां हुआ था। प्रारंभिक पढ़ाई रीवा में उन्होंने की, उसी दौरान देश प्रेम उनके भीतर जागा और आजादी के आंदोलन से जुड़ गए।
1942 में जब अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई उसका असर रीवा एवं आसपास तक भी था। रीवा से पढ़ाई के लिए प्रयागराज गए लाल पद्मधर सिंह ने आजादी के आंदोलन से छात्रों को जोड़ा। 12 अगस्त 1942 को प्रयागराज में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों की रैली लेकर वह जा रहे थे। उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी थी कि इलाहाबाद की जिला कचहरी (कलेक्ट्रेट) में तिरंगा झंडा फहराएंगे। उनके साथ बड़ी संख्या में छात्र सड़कों पर उमड़ पड़े थे।
वह आगे बढ़ ही रहे थे कि इसी दौरान बीच रास्ते में अंग्रेज सैनिकों ने रोक लिया। वापस जाने के लिए कहा, लेकिन वह पीछे जाने को तैयार नहीं थे। अंग्रेजों की पुलिस ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी। पहले उन्होंने साथ में गए छात्रों की जान बचाने के लिए सभी को लेट जाने के लिए कहा। उस दौरान नयन तारा सहगल(पंडित नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित की पुत्री) के हाथ में बड़ा तिरंगा था, उनकी ओर बंदूक तानी गई तो नयनतारा को बचाने के लिए पद्मधर सिंह ने तिरंगा हाथ में लिया और उन्हें लेट जाने को कहा और आगे बढऩे लगे।
इसी बीच उन्हें भी गोली लगी और गिर पड़े। इस दौरान उन्होंने झंडे को नीचे नहीं गिरने दिया। उनकी शहादत के बाद दूसरे छात्रों ने झंडा थामा और ऐसी शहादत के बाद आक्रोश और भड़क उठा। कई दिनों तक विश्वविद्यालय के छात्र शहर की सड़कों पर प्रदर्शन करते रहे, इसका असर देश के दूसरे विश्वविद्यालयों और कालेजों तक भी पहुंचा और देश में नया छात्र आंदोलन खड़ा हो गया।
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रीवा में रहते हैं परिवार के सदस्य
शहीद लाल पद्मधर सिंह मूल रूप से सतना जिले के कृपालपुर गांव के निवासी थे। उनके बड़े भाई लाल गजाधर सिंह के परिवार से विक्रम सिंह एवं लाल चक्रधर सिंह के परिवार से पियूष सिंह सहित अन्य रह रहे हैं। एक भाई का परिवार गांव जुड़ा है। लाल पद्मधर सिंह के दादा धीर सिंह 1857 की जंग में शामिल हुए थे।
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नेहरू ने परिवार को दी थी ट्राफी
लाल पद्मधर सिंह के शहीद होने के बाद प्रयागराज(इलाहाबाद) में बड़ा छात्र आंदोलन खड़ा हुआ था, जहां से पूरे देश में संदेश गया। आजादी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं मौलाना अबुल कलाम सहित अन्य की मौजूदगी में बड़ा कार्यक्रम आयोजित हुआ था। जहां पर शहीदों के परिजनों को सम्मानित किया गया था। लाल पद्मधर सिंह के भतीजे लाल सुरेन्द्र सिंह सहित कई लोग इलाहाबाद गए थे। जहां पर नेहरू ने ट्राफी प्रदान किया था, जिसमें लाल पद्मधर की शहादत का उल्लेख है। यह ट्राफी वर्तमान में रीवा के कृपालपुर हाउस में पियूष सिंह के पास मौजूद है।
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आज भी लाल पद्मधर के किस्से सुनाए जाते हैं
लाल पद्मधर सिंह के त्याग और व्यक्तित्व को प्रयागराज में छात्रों के बीच अब भी बताया जाता है। वह छात्रों के आदर्श माने जाते हैं और उनके किस्से सुनाए जाते हैं। इलाहाबाद विश्व विद्यालय की छात्र परिषद उनकी शपथ लेती है। बिना उनकी शपथ के छात्र परिषद का गठन नहीं होता। विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलनों में पद्मधर सिंह का नाम अब भी गूंजता है।
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पुस्तक भी हुई प्रकाशित
अमर शहीद लाल पद्मधर सिंह के नाम पर पुस्तक भी हाल ही में सतना में प्रकाशित हुई है। जहां बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। यह पुस्तक रमेश प्रताप सिंह जाखी की ओर से लिखी गई है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘ विंध्य भूमि का था सपूत, आजादी का दीवाना था, झुका नहीं गोरों के आगे, लाल पद्म मस्ताना था। देशभक्ति से ओत प्रोत हो, बना हुआ था मतवाला, जन्मा था कृपालपुर में वह, लाल प्रद्युम्न का लाला।’ इसके साथ ही उनके जीवन से जुड़े कई संस्मरण भी इस पुस्तक में समाहित किए गए हैं।
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संस्मरण : अन्याय का विरोध वह शुरू से करते थे, जेल भी जाना पड़ा
रीवा। लाल पद्मधर सिंह के भाई चक्रधर सिंह के नाती पियूष सिंह अपने परिवार के लोगों से मिली जानकारी को याद करते हुए बताते हैं कि शहीद लाल पद्मधर सिंह बचपन से ही अलग प्रतिभा के थे। उनमें संवेदनशीलता के साथ ही आत्मस्वाभिमान भी अधिक था। वह लोगों से विनम्रता के साथ संवाद करते थे इसलिए लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी। साथ ही आत्म सम्मान के खिलाफ खुलकर विरोध भी करते थे। वह जब रीवा दरबार हाईस्कूल की कक्षा आठ में पढ़ते थे तब सन १९२८ में विज्ञान की प्रयोगशाला से प्रिज्म चोरी हो गया। तत्कालीन प्रधानाध्यापक एसके टोपे ने सभी छात्रों के साथ उन पर बिना सबूत के आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि मैं निर्दोष हूं तब भी उनके खिलाफ टोपे ने अपशब्दों का प्रयोग किया। पद्मधर सिंह के कमरे की तलाशी भी ली गई लेकिन कुछ नहीं मिला। इससे आहत होकर उन्होंने गोली चला दी और टोपे घायल हो गया। इस अपराध पर सात वर्ष की सजा सुनाई गई। हालांकि अच्छे आचरण की वजह से तीन वर्ष के बाद ही उन्हें रिहा कर दिया गया। उनकी शादी के लिए तमाम इलाकेदार परिवारों से रिश्ते आते थे लेकिन उनका कहना था कि वह साधारण परिवार में शादी करेंगे। यह तब करेंगे जब देश को आजादी दिलाने में सफल हो जाएंगे। वह नहीं चाहते थे कि उनकी संतानें गुलाम भारत में पैदा हों। उनकी एक बार शादी तय हुई वह अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करना चाह रहे थे इसलिए तिलक लौट गया, जिससे परिवार के लोग भी नाराज हो गए थे।
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