रीवा। दशहरा उत्सव देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है। रीवा का दशहरा करीब चार दशक से अपने उत्सव और परंपराओं को लेकर चर्चा में रहा है। देश में मैसूर के बाद रीवा का दशहरा ही कई शदियों से चर्चा में रहा है। रियासत काल के दशहरे का अपना अलग वैभव था लेकिन आजादी के बाद भी इसकी परंपराओं को अब तक जीवित रखा गया है। इस दौरान शहर में आयोजन के स्थल बदलते गए और संसाधन भी नए आ गए लेकिन उत्सव का स्वरूप पहले जैसा है।
इतिहासकार असद खान बताते हैं कि बघेल राजाओं ने वर्ष 1618 में रीवा को राजधानी बनाया। तभी से यहां लगातार दशहरा का उत्सव मनाया जा रहा है।
शुरुआती कुछ वर्षों में किला परिवार में आयोजन हुआ। इसके बाद बिछिया मोहल्ले के मैदान में आयोजन होने लगा। यहां पर रियासत के हर हिस्से से लोग आते थे और महाराजा के सामने हाजिरी लगाते थे। इसलिए मैदान का नाम हजिरिहा रखा गया। उनदिनों मशालें जलाकर और आतिशबाजी कर जश्न मनाया जाता था।

महाराजा गुलाब सिंह और फिर मार्तंड सिंह के कार्यकाल में इस उत्सव को और विस्तार मिला। दूसरी रियासतों से भी अतिथि देखने आने लगे। बाद में स्थान बदलकर बोदाबाग के मैदान(जहां अब विश्वविद्यालय स्टेयम) में आयोजन होने लगा। वहां के बाद से टीआरएस कालेज के एनसीसी मैदान में आयोजन शुरू हुआ जो अब तक चल रहा है।
कोरोना काल में जरूर गाइडलाइन का पालन करते हुए किला परिसर में ही संक्षिप्त आयोजन हुआ था। असद खान का कहना है कि वर्ष 1299 में गहोरा और बांधवगढ़ में 1562 में राजधानी थी तो वहां भी इसी तरह के आयोजन होते थे। पहले लाव लश्कर में शामिल होने वाले हाथी-घोड़ों को भी जेबरों से सजाया जाता था।
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इसलिए खास है रीवा का दशहरा
-रीवा के महाराजा गद्दी पर कभी नहीं बैठे, उसका पूजन दशहरा में सबसे पहले होता है।
– रीवा राज्य के आराध्य लक्ष्मण जी माने जाते हैं, वह भी श्रीराम को गद्दी समर्पित किए थे, इसलिए यहां भी पालन हुआ।
– 725 वर्षों से एक ही परंपरा के अनुसार हो रहा दशहरा उत्सव।
– 406 वर्षों से रीवा में मनाया जा रहा है दशहरा।
– पहले हाथी, बग्घी, घोड़े, ऊंट आदि काफिले में चलते थे, अब वाहन चलते हैं।
– आजादी के पहले तक मैसूर, रीवा और कुल्लू का दशहरा चर्चित रहा है।
– शाही सवारी में सबसे पहले गद्दी फिर राजघराने के लोग रहते हैं।
– पहले हाथी-घोड़ों को भी जेबरों से सजाया जाता था।
– राजपरिवार से जुड़े लोगों के वंशज अभी उत्सव की प्रक्रिया में होते हैं शामिल।
– उत्सव के दिन विशिष्ट सेवा करने वालों का होता है सम्मान।
– वर्तमान में जिला प्रशासन भी आयोजन की व्यवस्था करता है।
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